Thursday, July 26, 2012


अदम

इतना मैं घर में तुम्हारे अहम हूँ ।

ये तो नहीं की शिकार-ऐ-वहम हूँ ।


जब भी सुना बस मेरा जिक्र था ।

जिक्र ही से बन गया मैं अदम हूँ ।


ओ! मेरे मिलते ही खुश होने वाले ।

(क्या) मिलके भी अब मैं करता सितम हूँ।


नज़र अब भी तलाशती तेरी किसको।

जुल्म सहने को क्या मैं एक कम हूँ।


उठाई जो नज़रें चलाये हैं खंज़र ।

'हिंदुस्तान' मैं तो हुआ यूँ कलम हूँ।

(अदम=जो नहीं था)


गंगा धर शर्मा 'हिंदुस्तान'

Wednesday, July 25, 2012

यदा-कदा: सावण सूखो क्यूँ !

यदा-कदा: सावण सूखो क्यूँ !: इबकाळ रामजी न जाण के सूझी, क बरसण क दिनां मं च्यारूँ कान्या तावड़ की  बळबळती सिगड़ी सिलागायाँ बठ्यो है | जठे देखो बठे ई लोग-लुगावड़ियां में ...

सावण सूखो क्यूँ !

इबकाळ रामजी न जाण के सूझी, क बरसण क दिनां मं च्यारूँ कान्या तावड़ की  बळबळती सिगड़ी सिलागायाँ बठ्यो है | जठे देखो बठे ई लोग-लुगावड़ियां में कि बाट देखता-देखता आकता होगा | खेतां मायलो बीज निपजणों भूलगो | तपत  तावड़ के मायनं टाबरां का पसीन स चिड़पड़ा होयोड़ा मूंडां न देखतां निगावां होठां प आयोड़ी सूखी फेफड़ी पर जाक थम ज्याव | पण कर तो के कर , सारो कुण् लगाव | सगळा एक-दूसर न  देख ले और फेरूँ आसमान कानी देखण लागज्या हैं |
एक कानी जांटी कि छाया म बठ्यो गण्डकङो जीब बारणै काड राखी है | गर्मी क मार ऊंकी  ल्हक-ल्हक डट ई कोन्या | 
रामजी सैँकी पत् राखण हाळो है, बं ई न याद करो..............


रामजी , गेर दे छाँट र |
ल्हुका-छिपि क्यांले कर्र्यो , क्यांकि आंट र |
रामजी , गेर दे छाँट र |


तीतरपंखी बादळ आव |
बिन बरसे  पाछा जाव |
पीण न  पाणी कोनी |
तुरत तरस दिखलाव |
ल्हुका-छिपि क्यांले कर्र्यो , क्यांकि आंट र |
रामजी , गेर दे छाँट र |




ळियाँ काची कई  तोड़ली |
 मँहगाई है घणी खोड़ली |
पण राम-रुखाळा सबका |
तू निठुराई  कयां ओढ़ली |
ल्हुका-छिपि क्यांले कर्र्यो , क्यांकि आंट र |
रामजी , गेर दे छाँट र |
(गंगा धर शर्मा 'हिन्दुस्तान')